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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...

इस बार फिर बर्फ गिरी तो


इस बार फिर बर्फ गिरी तो जीना दूभर हो आया। चारों ओर जहां तक दृष्टि जाती-बर्फ ही बर्फ !

पेड़-पौधों पर बर्फ। खेत-खलिहानों पर बर्फ। सामने का वह सारा पहाड़, जैसे एक ही रात में, सारा-का-सारा सफ़ेद हो आया हो-सफेद चादर की तरह।

नदी के किनारे जम गए हैं।

बीच में केवल एक धारा है-काई लगे पत्थरों से टकराती। छलछलाती।

जाड़ों में धूप निकलने पर कभी-कभी यहां से धुआं-सा उभरता है-आकाश की ओर, जिसे कुहासा भी कहा जा सकता है।

यही कुहासा वर्षों से उसकी आंखों पर छा गया है। इसलिए उसे सब धुंधला-धुंधला दीखता है। हर तरफ सफ़ेद झीनी चादर-सी। कभी-कभी जो पारदर्शी भी हो आती है, प्रकाश जब कुछ अधिक होता है।

उसे लगता है, अब प्रकाश भी कहीं धुंधला-सा गया है। दिन भी उसे दिन का जैसा अहसास नहीं देता। रातें भी रात जैसी नहीं लगतीं। एक धुंधला-सा सैलाब है-सैलाब ही सैलाब-उसमें उसकी क्षीण काया डूबती-उतराती-बहती चली जा रही है।

उसने परिस्थितियों के साथ जूझना अब छोड़ दिया है। अपने हाथ-पांव शिथिल छोड़ दिए हैं। विवश भाव से वह नदी की तरह बह रही है-बहती चली जा रही है किधर? कहां? उसे कुछ भी अब अहसास नहीं।

"इजा, कुछ खाओगी..?” कभी बाहर का कोई स्वर टकराता है तो उसके हाथ-पांव किंचित हिलते हैं।

“हूं ऊ ऊ.. !” मां केवल इतना ही कह पाती है-दो-तीन बार पुकारे जाने के बाद।

मुंह के ऊपर से रजाई हटाकर कोई अपना मुंह उसके और निकट ले जाकर फिर चिल्लाने के जैसे स्वर में पूछता है, “कैसा महसूस कर रही है इजा...?"

“हूं...ठीक हूं...बेटा !" वह हांफने-सी लगती है। उसका दम जैसे उखड़ रहा हो।

वह अंधेरे में हाथ-पांव हिलाती है—छटपटाती हुई।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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